कविता में बतियाते-बतियाते
अभी अभी वे निकले हैं यहाँ से
सारी पृथ्वी को सिर पर उठाए
माटी की गंध से सराबोर
उनमें कितनी कला है, कितनी विवेकशीलता
कितना सम्यक् चिंतन, कितनी लाग-लपेट
कितना धैर्य, कितनी प्रज्ञा
कितनी संवेदना, कितना शिल्प
उनकी कविता की नोट बुक में
कुछ किसानों के पते थे
कुछ दूधियों के तबेले
कुछ जूता गांठने वालों के ठीहे
पत्नी की फर्माइश
तो बच्चों की पेंसिल का नाम
नुक्कड़ की चाय की दुकान की गप्प
जिंदगी की हाहाकार करती पराजय थी
तो निरभ्र अंधकार में गिरते आँसू के कसक
जिन प्रकाशकों ने संग्रह नहीं छापे
उनका बाजार-भाव था
जो मौके-बेमौके धिक्कारते रहते थे :
ताड़ना का शब्द शास्त्र था
अखबारों में बची-खुची मनुष्यता का
समकालीन संदर्भ था
तो फसलों की गायब होती
हरियाली के
कुछ प्रसंग
उन्होंने दिल कुरेदा
मन मंथन किया
पृथ्वी को धारण किया
कविता रची ।