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कविता से ढूंढ लाएं ज़िंदगी / अमित कुमार अम्बष्ट 'आमिली'

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जब जिंदगी की तालाश में
खुद ही गुम हो जाता है आदमी,
रच नहीं पाता कोई कविता
तब कविता स्वयं आदमी को रचने लगती है!

ऐसे में उस आदमी का
कवि होना भी जरूरी नहीं रहता,
आदमी की जिंदगी खुद ही
एक कविता बन जाती है।

जरूरी यह भी नहीं कि
हर कविता को दिए जाएं शब्द
या हर कविता को उकेरा जाए
सफेद कागज पर,
इधर - उधर बिखरी कविताओं को भी
झट से समेट लेना जरूरी नहीं होता,
ना ही यह कि कविता की तालाश में
हर घटना पर रखी जाए पैनी नजर

इससे कहीं बेहतर तो यह कि हम
कविता से ढूंढ लाएं ज़िंदगी,
जैसे पक्षी रोज अहले सुबह
निकल पड़ते हैं घोसलों से,
अपने बच्चों के लिए चोंच में
भरकर लौटते हैं कविता,
जैसे माँ अपने दुधमुहे को पीठ पर बांधकर
पत्थरों पर हथौड़े से लिखती है कविता
या फिर ठीक वैसे
जैसे सूरज के इर्द-गिर्द पृथ्वी
दबे पाँव हर पल रचती रहती है कोई कविता