कविता से लड़ सकोगे? / अनामिका अनु
इस मौसम में मिज़ाज बदल लो
लड़ा बहुत धर्म, ईमान और सम्मान के लिए
इस बार मेरी कविता के शब्दों से राड़ ठानो
ये औजार और मज़दूर बनकर उठ
खड़े होंगे
और कस देंगे तुम्हारे हर ढीले कल-पुर्जे को
चल पड़ेंगे वे बन्द कारख़ाने
जहाँ इनसान बनना कब से बन्द था
क्या खोद रहे हो
गड़े मुर्दे काले अतीत के
मेरी कविता पर फावड़ा चलाओ
इसमें दबा है
जीर्ण कहानियों के अस्थिकलश में
खनकता अतीत
क्या चाहिए ?
बहुत तपा कार्बन अपररूप !
मेरी कविता से झाँक रही है
आग की उम्मीद
वह कोयला
जो तुम्हारे
चूल्हे को गर्म रखेगा
ज़हर निगलकर मरना है ?
तो चुन लो हीरा…
मेरी कविता को ऐसे हिलाना
कि फूट पड़े उससे ज्वालामुखी
किस क्रोध में तुम इतनी आग उगलते हो
जल गए घर, छत, लोग, दुकानें और बेजान बसों
के साथ रोज़ी कितनों की
इस बार जलाना मेरी कविता को
ताकि उस पर सेंक सके भूखे-नंगे प्यासे बच्चों
की माँएँ रोटी ।
ऐसी रोटी
जिससे ख़ून और किरासन की बू नहीं आती हो !
कल जोतना मेरी कविता को
फिर छींट देना कुछ बीज विचारों के
खड़ा बिजूका फ़सल के इन्तज़ार में है
हरी सोचों को खड़ी होने की इज़ाजत है
मेरी कविता खेत हो गई इसी इन्तज़ार में ।
बासी रोटी खाना
नमक, हरी मिर्च और कच्चे प्याज
के साथ
पेट भरने का सबसे अच्छा तरीका
भूख भी मर जाएगी
और कुछ भी बासी नहीं रहेगा
तब तो नया पकेगा
नई भूख मिटाने
के वास्ते ।