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कविता से / अलेक्सान्दर ब्लोक / वरयाम सिंह

तुम्‍हारे अमूल्‍य स्‍वरों में
प्रलय के हैं भयानक समाचार,
पावन अनुदेशों के अभिशाप हैं उनमें
और है सुख-सुविधाओं के प्रति तिरस्‍कार।

ऐसी आकर्षक ताकत है उनमें
सच लगती हैं कहावतें मुझे
कि फुसलाया है देवदूतों को भी
अपने सौंदर्य से तुमने

हँसने लगती हो जब आस्‍थाओं पर तुम
चमक उठता है तुम्‍हारे ऊपर
दिखा था मुझे भी जो कभी
धुँघला और फीका प्रभामंडल।

निष्‍ठुर हो तुम या सदय
पर हो नहीं तुम इस जगह की
मानते हैं लोग - तुम हो आश्‍चर्य और देवी
पर नरक यातनाओं का हो तुम मेरे लिए।

क्‍यों नहीं हुआ मेरा अंत उन क्षणों में
जब थी नहीं तनिक भी ताकत शेष,
मुझे तुम्‍हारा चेहरा क्‍या दिखा
कि माँगता रह गया मैं सांत्वना की भीख।

हम बने रहें दुश्‍मन - यही इच्‍छा थी मेरी
पर किस लिए भेंट की तुमने
फूलों की घाटी, तारों की आभा,
और सौंदर्य के समस्‍त अभिशाप ?

उत्‍तरी ध्रुव की रातों से अधिक कपटपूर्ण,
शराब से अधिक उन्‍मादक,
जिप्सियों के प्‍यार से भी क्षणिक
भयानक थे तुम्‍हारे प्रेमालिंगन...

पवित्र अनुदेशों के उल्‍लंघन में
मिलता था घातक आनंद,
हृदय के लिए अति सुखदायक रहा
आग-सा धधकता यह अनुराग।