कविता - 1 / अरविन्द यादव
वह कविता जो
रहती थी कभी गले का हार
जिससे निकलती थी गन्ध
ओज, माधुर्य और प्रसाद की
वह कविता जिसे सुनकर
दौड़ पड़ती थीं म्यान से तलवारें
चीरने को शत्रु का वक्ष
उतर आती थी ख्वाबों की अप्सरा
कल्पना के आकाश से
हो जाते थे मूर्छित महाप्रभु चैतन्य
होकर आत्मविभोर
झलकने लगते थे सावन-भादों
विरहणी की आँखों से
आज उस हृदय की रानी को
कर लिया है कैद
मुठ्ठी भर आक्रान्ताओं ने
बुद्धि के दुर्ग में
जहाँ कर ली गई है हरण
उसकी सुन्दरता, सुकुमारता व सरसता
और पहना दिए हैं उसे
नवीन बिम्बों के बेरंग वस्त्र
जिनने छीन ली है उसकी सुन्दरता
नव प्रतीकों की हथकड़ियों और बेड़ियों ने
छीन ली है उसकी सुकुमारता
विचारों की जटिलता में
विलुप्त हो गई है उसकी सरसता
अतिशय विद्वता कि वन्दिशों ने
बना दिया है उसे
एक पत्थर
जिससे नहीं फूटती
कोई जलधार
जो कर सके हरा-भरा
मरुस्थल को।