भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कविता / केशव
Kavita Kosh से
कविता
एक अँधेरी तँग सुरँग से गुजरकर
पहुँचती है मेरे पास
बार-बार जन्म देती है
उजाले को
अपना खरोंचोंभरा मर्म
खोल-खोल दिखाती है
जैसे कहती है
देखो
लौट आयी हूँ
अपना-सा मुँह लिये
चाहने वालों के बीच से
किसी ने न पूछी बात
दुलराया तक नहीं
कि उन्हीं के शिशु
लिये गर्भ में
घूम आयी एक छोर से
दूसरे तक
सभी ने गर्भ के शिशु को
पहचानने से
कर दिया इनकार
इसलिए भटक-भटक कर
लौट आयी हूँ
तु्म्हारे पास.