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कविता / श्रीनिवास श्रीकांत
Kavita Kosh से
वायवीय है कविता
नदी
एक पिघलती हुई
धमनियों से रिसता
रक्त
शरीर से फूटता
एक नया
शरीर
दर्पण के अन्दर दर्पण
खुलती किसी में आँख की तरह
किसी में उभरता प्रतिबिम्ब
कवि पैदा करता है
नए अर्थ
मगर अपने कायान्तर में भी
वह
होती है वही |