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कविता : दोय / विजय सिंह नाहटा

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बा ई रात डिगतीसी बंदरगाह माथै
पुहुपां री बा ई जूनी सौरम
बा ई प्रीत री कंवळास
बो ई काळ रो अखूट चक्कर
टीपणै री बा ई हूंस
बा ई भोर-सिंझ्या
दिन-रात लय बंध्या सा
बै ई जूण रा धुर सांच
बा ई गेलां री धूळ
बा ई मंजळां ढूकण री खाथावळ
बो ई उमर रो खजानो जी भर भंवूं
बा ई अनाम मौत
जिण रै भीतर बाअंडै कठै ई नीं हूं।