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कवियों ! गुस्सा जाग्रत कीजिये / प्रभात कुमार सिन्हा

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विलुप्त हो रहा है गुस्सा
जैसे लुप्त हो रहे हैं गिद्ध
गिद्धों के आहार कम हो रहे हैं
झाड़ियां कम हो रही हैं जिनकी छांह में
आराम करते थे खरगोश तीतर जल-पांखी
अजगर गायब हो रहे हैं
झुलसती गर्मी में अजगर पसीना-पसीना होते थे
इनके पसीना चाटकर
प्यास बुझाती थीं छोटी-बड़ी छिपकिलियां
सिवान में शाम होते ही रुदन करते थे सियार
पास के गांव के श्वान
स्वर में स्वर मिलाते थे
 
कहां गये वे गिद्ध खरगोश
किथर छिप गये वे अजगर छिपकिलियां सियार
केवल कुत्ते भौंक रहे हैं
गांव-कस्बों के कुत्तों की प्रजातियां
शहर और राजधानियों के कुत्तों से सम्पर्क साध रहे हैं
राजधानियों से छोटे शहरों-कस्बों-गांवों में
आ रहे हैं कुत्ते
ये कुत्ते बुलडाॅग कहलाते हैं
सज्जित मंच पर चढ़कर ये कुत्ते
अपनी छोटी प्रजातियों को
कटखना बनने की प्रेरणा दे रहे हैं
उनकी देख-रेख में हैं अब सभी देवालय
वहां वे घंटियां बजाते ही रहते हैं
 
अब वे शंखध्वनि की आवाज में भौंकते हैं
इस ध्वनि के सम्मोहन मे मत फंसिये कविगण !
 
मोहक शब्द-जाल रचते हुए
बाॅदलेयर के अनुगामी होने से बचिये
 
मलार्मे की छाया के पनाहगाह में
शरण मत लीजिये
 
पाॅल वरलेन के छूटे हुए मोजों से बनी टोपी
मत कीजिये धारण
 
रैम्बो की चड्ढी में
मत ढूंढिये अपनी कविता का अस्तित्व
 
आपके आसपास प्रतीकवादियों की जो
कविताएं तैर रही हों
उनकी जड़ों में डालिये हींग
 
हे कविगण !
गुस्सावर शब्दों को जाग्रत कीजिये
कुछ नहीं कर सकते हों तो कम से कम
इन भौंकने वालों की पूंछ के नीचे
पेट्रोल छिड़कना ही बताइये
 
अपने गुस्से को विलुप्त होने से बचाइये ।