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कवि-कर्म / पृथ्वी: एक प्रेम-कविता / वीरेंद्र गोयल

क्या मैं कवि होना भूल गया
या कविता कहीं छूट गयी
इस दुख भरे जीवन में?
बस वही तो एक संबल था
जिसे आकाश की तरह
ओढ़ लेता था
कभी चाँद से बतिया लेता था
कभी तारे गिन-गिन
रात गुजार लेता था
बस वही तो
जिसे धरा की तरह
बिछा लेता था
कभी नीचे, तो कभी ऊपर
मछलियाँ गुनगुनाती थीं
जुगनू चमचमाते थे
कविता से कट जाता था जीवन
तुमने वो भी छुड़ा दिया
आओ
इस दुख की नदी को धो दें
इस सागर को उन्मुक्त कर दें
आकाश के नीलेपन को चमका डालें
आओ, अपने पाप
अपनी कार्बन-डाइआक्साइड
खुद ही पी लें
हो जायें नीलकंठी
किसी को कविता में भी कलुषित ना करें
चाँद का मुँह टेढ़ा है
पर चाँद मेरा है
आकाश के शुभ पृष्ठ पर चाँद एक कविता है
भेड़िये रोते हों कितना ही मुँह उठाये
ये धरा, ये आकाश
अपने-आपमें कविता है
मनुष्य के लिए
इससे वादा करती हुई
एक शब्दहीन कविता।