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कवि-प्रिया / अमरेन्द्र

है फेरू लेलौ तोहें पोथी आरो पतरा
कहाँ के फेरू चलानी ई करलौ,
कहै छियौं फेरूµनै अच्छा ई होतौं
जों तोहें हेन्होॅ मनमानी ई करलौ ।

रक्खी दौ तोहें सब पोथी आरो पतरा
जाय केॅ बथानी मेॅ बछिया केॅ देखौ
कुट्टी दौ, भोरे सें भुखलोॅ छै बछिया
टूटलोॅ छै कै दिन सेॅ खटिया केॅ देखौ ।

जाय केॅ ओरांची दौ, छोड़ोॅ कविताई
भोरे सेॅ कानी रहलोॅ छै फुलचनमाँ ।
ई सब तेॅ कुच्छू सुझैतौं नै खाली
केला के चैप लै के दौड़े पहुनमाँ ।

घर के तेॅ एक्को नै काम होतौं-जैतौं
खाली तोहें सोहरोॅ सेॅ डायरी केॅ भरोॅ,
कन्नेॅ उठैलौ ई पोथी आरो पतरा
खींची दौ पहिलें नूनू के गनतरोॅ ।

दइयो कहाँ सेॅ उठाय केॅ ई लान्ल्हा
आपने भर टिकतौं यहाँ पर पेटपोस्सी
रूकी जा, तोहं बनाय केॅ चाय दिहौ
अइतै सिरपोटरी के देवर-नन्दोशी ।

सुनलौ नै, वैहरोॅ हेनोॅ की ताकै छौ,
नौड़ी नै छेकियौं कि तोहं जे चाहवौ
वही करैवौ, की समझै छौ हमरा
आखिर ई कब पिहानी बनैबो ?

चंदा केॅ देखोॅ, पिहानी बनावोॅ,
मंचोॅ पर जाय-जाय केॅ सबकेॅ सुनावोॅ
जे चीज सेॅ झरकी छै, लै दै केॅ वही,
उन्हेॅ की टुघरै छौ, इन्हें नी आवोॅ ।

झुट्टे के दस केॅ घंघेटी केॅ काँय-काँय
रोजके एक खिस्सा, ई खिस्सा उठावोॅॅ,
टीनोॅ सेॅ आँटा निकाली लेॅॅ थोड़ोॅ
कविता बनैला नीµरोटी बनावोॅॅ ।

बारी सेॅ बैगन केॅ तोड़ी लै आन्होॅ
कुतरुम केॅ थोड़ोॅ पटैनें भी अइयोॅॅ
हाथोॅ मेॅ हमरोॅॅ परद छै यै वास्तें
उसनी दौ धान, तबेॅ सम्मेलन में जइयोॅ ।