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कवि और कविता / प्रमोद कुमार तिवारी

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अँकवार भर विचार और कलम लेकर
पहुँचा कागज के पास
सोचा बस बदल ही दूँ दुनिया
भरोसा था लिखने का
कुछ अपूर्व, युगांतकारी।
पर सारे विचार हवा हो गए।
भावों को भी नहीं भायी मेरी कलम।
सोचा, क्यों न लिखूँ, हवा पर ही कुछ -
लिखा, हवा
शीतल सुखद हवा...
हवा आई...
पूछी क्या कर रहे हो?
बताया, हवा रच रहा हूँ
यानी तुम पर कविता लिख रहा हूँ
अच्छा! उससे क्या होगा?
लोग जानेंगे, तुम कितनी प्यारी हो
अच्छा! तुम जानते हो, कैसी हूँ मैं?
(हिल गया कागज) बताओ-बताओ कैसी हूँ मैं?
जी में आया कह दूँ
शरारती हो, भोली-भाली हो
गाँवों में गोरी, शहरों में काली हो
पर मुझे पड़ी थी गंभीर कविता की
सो डाँटा मैंने, लिखने दो
महान और कालजयी होने का प्रश्न है
संपादक जी से वादा है
तुम्हें क्या पता, कितना बड़ा काम है लिखना
हवा जाने कहाँ से उठा लाई एक पत्ता
डाल दिया ठीक कलम के आगे
समझाया मैंने
देखो, शैतानी मत करो
हँसी-खेल नहीं है कविता
बड़ी मुश्किल से बनता है मूड।
बोली, तुम अपनी हवा से कहो ना, उड़ा दे इसे
एक तेज झोंका आया
और उड़ गया कागज
मैं झल्लाया, क्या कर रही हो?
देख रही हूँ, तुम्हारी हवा को
यह तो निरी बुद्धू है
न हिलती है न डुलती है, बिलकुल सूखी
भला! कैसी हवा है ये?
मुस्कुरा दिया मैं, कहा -
तुम सिखा दो!
देखा दूर आकाश में लहराता उड़ा जा रहा था...
कागज
नहीं, नहीं
कविता।