कवि और कविता / बसन्तजीत सिंह हरचंद
उसकी प्रत्येक कविता भूख से छटपटा रही है ,
फिर भी दूसरों का जीने में हाथ बँटा रही है .
उसकी प्रत्येक कविता भूखी है
क्योंकि इसकी ज़ुबान चाटुकार कुतिया नहीं ,
क्योंकि इसकी ज़ुबान पैरों की जूती नहीं ,
क्योंकि इसकी ज़ुबान पैनी है ,रूखी है ;
इसीलिये भूखी है .
वह कवि है
अत: भूख है , गरीबी है ,
और उसकी झोली में
भारत की बदनसीबी है ,
खाने को मांगती हुई घर पर इक बीवी है ;
और उसकी जान को रोते हुए बच्चे हैं ,
सच्चे हैं .
इसीलिए उसकी कविता डरी हुई है
चाहे यह अन्याय के प्रति कितनी भी पैनी है,
कितनी भी रूखी है ,
फिर भी इसकी ज़ुबान भय से सूखी है ;
डरी हुई है
घर के जंजालों से ,
बीवी से, बच्चों से ,
घर भर कंगालों से .
हर कोई उसकी गरीबी घृणा से देखता है ,
ओछा समझता है ;
पर अपने घावों को कविता से सेंकता है ;
गर्मी पहुंचाता है ,
अकेले में गाता है .
भूख है
अभाव है ,
गरीबी है ,
ऐसे में हर कपड़ा उसे
धीरे - धीरे नंगा करने लगता है ;
और प्राय: प्रत्येक सत्य
उसे ठगता है ..
(अग्निजा ,१९७८)