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कवि का होता मौलिक स्वर / हरिवंश प्रभात

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कवि का होता मौलिक स्वर, विश्वास नया,
अपनी रचनाओं का पाठक पहला हूँ मैं।

जारी रखता हूँ तलाश मैं मूल्यों की
यह भी जान रहा हूँ युग है विघटन का,
जीवन के अपने रस्ते, अपनी मंज़िल
भाव स्व निर्मित जग जाहिर अन्तर्मन का।

मैं निर्भीक हूँ रचनाकार अपनी शर्तों पर
अपने आलोचक को देख के बहला हूँ मैं।

मर्यादा अनुशासन भला नहीं तो क्या
गला घोंट है सुखी जीवन का नहीं तो क्या,
सबका बंधा हुआ दायरा मैं स्वतंत्र हूँ
दीपक बनकर जला अगर खुद नहीं तो क्या।

उलझन आती रही राह में फिर भी गुज़रा
युगों-युगों तक मुक्ति मार्ग पर चला हूँ मैं।

इस अभियान में और लगेंगे आशा है
इसका भी विस्तार गगन तक भी होना है,
और तलाशी जायेंगी, कुछ नयी दिशाएँ
बेशक गहरे सागर पैठ भी होना है।

मत झुठला देना प्रयास निरंतरता का
मिली उपेक्षा बावजूद सम्हला हूँ मैं।