कवि की आश्रयदात्री / प्रभात कुमार सिन्हा
बार-बार मन के सीढ़ीघर के नीचे
छिपी हुई यह निर्भीक औरत
फांड़ा बांधकर हृदय की सांकल बजाने लगती है
जरा सी देर होने पर लगती है चीखने
आते ही आंखें दिखाती है और
कविता लिखने वाली कांपी के
कोरे पन्नों को फाड़-फाड़ कर बिखरा देती है
हजार वर्ष से वह
मेरे साथ ऐसा ही करती आ रही है
इसकी बात की लात खाते हुए
मैं लतियल हो गया हूं आदतन
मेरे मन के आंगन में वह
एड़ियां पटकती हुई दाखिल होती आयी है बेधड़क
इसकी बेकाबू स्वतंत्रता को काबू में
लाने की जो चाबी थी उसे
इसने कुएं में डाल दी है
लम्बी लकड़ियों को माथे पर रख वह
दोनों हाथ लगाकर तोड़ देती है और अंगीठी
सुलगा देती है
धुआंता रह जाता है मन का कोना-कोना
उसे माचिस से आग सुलगाते कभी नहीं देखा
अपनी छाती में अंगुलियां डालकर
निकालती आयी है आग
मेरी क्षुधा को वह जानती है
मेरी क्षुधा के सभी प्रकारों को वह ठीक से जानती है
बस यही गनीमत है कि इस औरत ने
हजार वर्ष में एक बार भी मुझे भूख से
तड़पने नहीं दिया
मेरे अवसाद को पोंछने के लिये उसके पास
रूई के फाहे हैं
प्रेम की कविताएं लिखाने के लिये
आंखों के काजल को काढ़ कर
कलम की नोक पर लगा देती है
मेरी इन कविताओं पर हजार वर्ष में
लाखों लोग फ़िदा हुए हैं
केवल मैं ही जानता हूं कि
मेरी इन कविताओं की आश्रयदात्री कौन है
इन दिनो यह औरत मेरे सामने बैठकर
सत्ता से भिड़ जाने के शाब्दिक दांव सिखा रही है ।