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कवि की रसोई / प्रेमचन्द गांधी

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ज़रा आराम से बाहर बैठो
मेरे प्‍यारे श्रोता-पाठक
इधर मत तांको-झांको
आनंद लो खुश्‍बुओं का
आने वाले जायके का
मेरी कविता की कड़वाहट का

कुछ हासिल नहीं होगा तुम्‍हें
इधर आकर देखने से
बहुत बेतरतीबी है यहां
कोई चीज़ ठिकाने पर नहीं

सुना आज का अखबार पढ़कर
जो डबाडबा आये थे आंसू
उन्‍हें मैंने प्‍याले में जमा कर लिया था

पहले प्रेम के आंसू
बरसों से सिरके वाली बरनी में सुरक्षित हैं
किसानों के आंसुओं की नमी
मेरे लहू में है
भूख-बेरोजगारी से त्रस्‍त
युवाओं की बदहवासी
मेरे भीतर अग्नि-सी धधकती रहती है
जिंदगी के कई इम्‍तहानों में नाकाम
खुदकुशी करने वालों की आहें
मेरी त्‍वचा में है चिकनाई की तरह

विलुप्‍त होते जा रहे
वन्‍यजीवों के रंग मेरी स्‍याही में
जंगल और पहाड़ों के गर्भ में छुपे
खनिजों की गर्मी है मेरी आत्‍मा में
और इन पर जो गड़ाये बैठे हैं नजरें
पूंजी के रक्‍त-पिपासु सौदागर
उन पर मेरी कविता की नज़र है लगातार

अभावग्रस्‍त लोगों की उम्‍मीदों के
अक्षत हैं मेरे कोठार में
हिमशिखरों से बहता मनुष्‍यता का
जल है मेरे पास दूध जैसा
प्रेम की शर्करा है
कभी न खत्‍म होने वाली
दु:ख, दर्द और तकलीफों के मसाले हैं
चुनौतियों का सिलबट्टा है
कड़छुल जैसी कलम है
हौंसलों के मर्तबान हैं
कामनाओं का खमीर है मेरे पास

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