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कवि की विवशता / शशांक मिश्रा 'सफ़ीर'

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तुम ही कहो ना, क्या करता मैं?
जो करना था, ना हो सका मुझसे।
जिसने जमाई यह दुनियाँ।
जिसने टाँका तुम्हारे माथे पर
मानव होने का अभिशाप।
जिसने साँस भरी तुममें।
वो भी ना कर सका कुछ।
बोलो मैं क्यों ना भागता?

अरे बचा ही क्या होने को,
सिवाय राख के।
कहो न क्या बचा है खोने को,
सिवाय शाख के।

क्यों उगे बीज,
जब उसे बांझ ही होना है।
क्यों संचालित हो सृष्टि
तुम्हारे लिए?

मैं भाग निकला, कल नहीं सो आज।
नहीं कर सकता मैं गड्ड मड्ड।

क्या छूटा तुमसे जो बचा रहा,
सिवाय इक्कीसवीं सदी के।