कवि के प्रति - 2 / शिशुपाल सिंह यादव ‘मुकुंद’
देश का विधायक उन्नायक हो तुम्ही कवि,नीति ठाव न्यारी लोक=लोक में सुहाती है
साड़ी जनता के प्रतिनिधि हो महान तुम,गति ठाव -जान को सहज सरसाती है
नाचता 'मुकुंद' -मोर लाख मंच सावन के,घनश्याम छंद छबि प्रकट लुभाती है
कवि! तू है अमर विधाता जगती-तल में,रचना विचित्र नव-अचरज लाती है
देख तो 'मुकुंद' कवि लेखनी मुकुंद गन, गाती है कभी तो महाभारत मचाती है
कवि तेरी लेखनी की वाणी कभी मधु भरी, कभी वह तीखे व्यंग-बाण बरसाती है
तुलसी के काव्य की मधुरिमा विमोहति तो,भूषण की ललकार मन उचकाती है
लेखनी तुम्हारी कभी मधु से मधुर कवि!कभी वः तीव्र तलवार बन जाती है
एक रस में 'मुकुंद' रम जाए खिन,विभु की विभूति-दृष्टि रह-रह आती है
नव रस बीच डूब जाए न्र एक पल,वाह ! कवि घटा तब पल-छिन छाती है
देने को बधाई तुझे मेरे कविनित्य-प्रति,कविता विविध विधि गीत नाव गाती है
षटरस विधि के विधान में अमहट है,नवरस सृष्टि तेरी प्रतिभा दिखाती है
छंद की छटा विचित्र शब्द स्वर गुम्फित है,कोकिल ने मानो राग पंचम में गाया है
क्या कहे 'मुकुंद' मन्द-मन्द मुस्काता वह,जानकार यह हो कवीश्वर की काया है
मोल हो श्रंगार लिए कविता वधु का गान, सुनता है कवि धन्य तेरी यह माया है
कवि तेरी कीर्ति की सराहना सकल दिश,मानो मधुमास नित्य तुझमे समाया है
शंकर है कवि निज वाणी बीच कभी-कभी,अमृत भी घोलता है विष भी घोलता
घर-घर कांपते 'मुकुंद' रंक-राव सभी,पापी तो सहम जाते जब तू है बोलता
जल जाता काम-छल पल में महेश कवि !होकर सरोष तू त्रिनेत्र जब खोलता
कवि तू प्रचण्ड शक्तिशाली महि-मण्डल में,तेरे सिंहनाद से कुशाशन है डोलता