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कवि के मन / मनोज भावुक

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हमरा जिनिगी के पतेली में
आजुले का-का डभकल,
एकर लेखा-जोखा त नइखे
बाकिर डभका के चिखला,
चबइला आ घोंटला पर के
तीतापन, मीठापन आ खट्टापन
हम आजो नइखीं भुलाइल।

भुलाइयो नइखीं सकत
दुख-दरद के टीस।
आह! दुख के लमहा,
केतना लमहर होला,
समुंदर लेखां दूर ले पसरल।
आ सुख! केतना क्षणिक।
बाकिर तबो,
केतना बरियार, केतना ऊर्जावान।
उड़ा देला आदमी के ऊपर
चिरई लेखां फुर्र से।
उड़ जाला आदमी
धरती छोड़ के
ऊपर बहुते ऊपर।
फेर त ऊ नीचे उतरहीं के ना चाहे
बाकिर निष्ठुर समय उठा के नीचे
पटकिये नू देला।
सब धधाइल मिट जाला
छितरा जाला आदमी
मन के हरियरी झुरा जाला।

बाकिर कवि के मन
त झुराइयो के
एगो सुखे के अनुभव करेला
जमीन से जुड़ला के सुख।
एह एहसास के कागज पर
छितरइला के सुख।
बाकिर ऊहो त आदिमिये नू!
आदत से लाचार।
मानिये ना सके।
उड़बे करी उड़ते बा
अपना अनुभव के एहसास,
दुनिया के देत,
उठत-पटकात, लफत-लथरात बढ़ते बा।
मन का भीतर अँवटात,
दूध के उबाल से जरत,
आ फेर जर के बनल खोआ के
सवाद लेत,
चिखत-चिखावत चलते नू बा।
ओकर भावुक मन
कठोर यथार्थ से टकरात-टूटत फाटत-फूटत
उगिलते नू बा
'दुख-दरद आ सुख-आनंद के अनुभूति'
आ उगिलते रही
जब ले दूध अँवटात रही, मन का भीतर
आ डभकत रही पतेली जिनिगी के।