कवि के हाथों में लाठी / परितोष कुमार 'पीयूष'
वो बात किया करते हैं
अक्सर ही स्त्री स्वतंत्रता की
बुद्धिजीवियों की जमात में
उनका दैनिक उठना बैठना
चाय सिगरेट हुआ करता है
साहित्यिक राजनीतिक मंचों से
स्त्री स्वतंत्रता के पक्ष में
धाराप्रवाह कविता पाठ किया करते हैं
अखबारी स्तंभों में भी
यदा कदा नजर आ ही जाते हैं
नवलेखन, साहित्य अकादमी,
साहित्य गौरव, साहित्य शिरोमणि, कविताश्री
और पता नहीं क्या-क्या इकट्ठा कर रखा है
उसने अपने अंतहीन परिचय में
सड़क से गुजरते हुए
एकदिन अचानक देखा मैंने
उनके घर के आगे
भीड़! शोर शराबा!
पुलिस! पत्रकार!
कवि के हाथों में लाठी!
मुँह से गिरती धाराप्रवाह गालियाँ!
थोड़े ही फासले पर फटे वस्त्रों में खड़ी
रोती-कपसती एक सुंदर युवती
और ठीक उसकी बगल में
अपाहिज सा लड़खराता एक युवक
इसी बीच
भीड़ की कानाफूसी ने मुझे बताया
पिछवाड़े की मंदिर
उनकी बेटी ने दूसरी जाति में
विवाह कर लिया है
मैं अवाक् सोचता रहा
कि आखिर किनके भरोसे
बचा रहेगा हमारा समाज
क्या सच में कभी
स्त्रियों को मिल पायेगी
उनके हिस्से की स्वतंत्रता