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कवि कोकिलसँ / चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’

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1
‘बाल चन्द विज्जावइ भासा’ जनिक लेखनी ई कहि गेल,
‘दुइ नइ लग्गइ दुज्जन हासा’ आइ ताहिमे उठल झमेल।
विसपी बिष पिबि पुरिवामे अछि पड़ल, तकर के करत पुछारि,
अपनहि हाथेँ ऊक लेसि हम अपने घरकेँ रहलहुँ जारि।
आवि लोक-भाषा काननकेँ जे कोकिल गुंजित कय गेल,
‘दुइ नइ लग्गइ दुज्जन हासा’ आइ ताहिमे उठल झमेल।
2
आइ भवानीपुरमे देखी अपने उगना बनल बताह,
तेहन मति-भ्रममे सब पड़लहुँ, बुझि नहि सकी नीक अधलाह।
अपने धक्का मारि संस्कृतिक भित्ति कोना ई ढाहल गेल,
‘दुइ नइ लग्गइ दुज्जनहासा’ आइ ताहिमे उठल झमेल।
3
वंग कलिंग असमसँ लय अनुगुंजित होइत रहल ब्रज-भूमि,
दिल्ली पथ पर सूनि नचारी यवन शासको उठला झूमि।
तनिक माधुरीमे अछि सम्प्रति तीत चिरैता घोरल गेल,
‘दुइ नइ लग्गइ दुज्जन हासा’ आइ ताहिमे उठल झमेल।
4
वेदमन्त्रवत् जनिकर वाणी बिनु भय सकय न शुभ संस्कार,
छओसय वर्ष समय बीतल आ एखनहु मुग्ध रहय संसार।
अपनहि करनीसँ की हम सब जानि-बूझि कय बनी बलेल?
‘दुइ नइ लग्गइ दुज्जन हासा’ आइ ताहिमे उठल झमेल।
5
सुरसरिस्वयं ससरि भक्तक लग अइली साक्षी अछि इतिहास,
भक्तिक महिमासँ मण्डित ‘विद्यापति मठ’ दय रहल प्रकाश।
काल-दीपमे यशोवर्त्तिका रहत-जरैत बिना घृत-तेल,
‘दुइ नइ लग्गइ दुज्जन हासा’ आइ ताहिमे उठल झमेल।
6
प्रीतिक राधा-माधव-पद पढ़ि तजथि चेतना श्रीचैतन्य,
‘कविपति विद्यापति मतिमाने’ थिक गोविन्दक भक्ति अनन्य।
ककरो मनकेँ मोहिलेब से बुझलहुँ बामा हाथक खेल,
‘दुइ नइ लग्गइ दुज्जन हासा’ आइ ताहिमे उठल झमेल।
7
हे कविशेखर! कठिन तपक फल अपने पौलहुँ शिवसायुज्य
पुरूषार्थक पथ-निर्देशक बनि आइ विश्वमे दीसम्पूज्य।
शस्त्र-शास्त्र दुनूकेँ सम्यक रूपेँ तेँ संरक्षण देल,
‘दुइ नइ लग्गइ दुज्जन हासा’ आइ ताहिमे उठल झमेल।
8
हे कविकोकिल! अहँक साधनासँ मिथिला पौलक उत्कर्ष,
चरण-चिह्न पर चलइत मैथिल रहत करैत सदा संघर्ष।
के समर्थ अछि अधिगत गौरव-गरिमा पाछाँ सकत धकेल,
‘दुइ नइ लग्गइ दुज्जन हासा’ आइ ताहिमे उठल झमेल।
9
अहँक चरण-वन्दन अभिनन्दन करक मनोरथ मनहि विलीन,
शिवसिंहक बिनु शिथिला मिथिला लागि रहल अछि शक्ति-विहीन
सहज सुमति वर दिअओ गोसाउनि राखथु सब-अपनामे मेल,
बाल चन्द विज्जाबइभाषा तनिक लेखनी ई कहि गेल॥