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कवि तुम ! / सुरेन्द्र रघुवंशी
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प्रिय कवि मित्र मणि मोहन के लिए
जब दुनिया से ग़ायब हो रहा है सत्य
कवि तुम विश्वास के बाल पकड़कर
सत्य को चेहरे से झिंझोड़कर जगा दोगे
चापलूसों की आ गई बाढ़ के बीच
अकेले नमी के हक़ में खड़े होकर
तुम धरती को झुलसा देने वाले मौसम को बद्तमीज़ कहोगे निर्भीक होकर
अपनी छोटी सी कविता में
तुम नापते हुए समन्दर की गहराई
अपनी मुट्ठी में ले आओगे उसका सारा नमक
सूख चुकी नदी की पीड़ा के उत्तर में
तुम ख़ुद बादल में रूपान्तरित हो
बरस उठोगे झमाझम