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कवि महोदय बेचैन है / ज्योत्स्ना मिश्रा

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कवि महोदय बेचैन हैं
कवि महोदय उदास हैं
ये बेचैनी सीरिया से दिल्ली तक
ये उदासी मोहब्बत से रोटी तक

कहीं भी टिकी हो सकती है
पर बहुत ज़रूरी है, ये उदासी
उनकी कविताओं के लिए

वो हमेशा महान कवितायें ही
लिखतें हैं
खुनक ठंडी तासीर की
या हलकी गर्म जोशियों से भरी
भूख पर, युद्ध पर, प्रेम पर
संवेदनाओं से भरी
पुरदर्द कविता
कवि उसे आग कहना पसंद करते हैं

कवि मानते हैं
कि पृथ्वी एक बारीक धागे से लटकती है
अंतरिक्ष से
वो धागा लिपटा है
उनकी तत्कालीन प्रेयसी की नाज़ुक कलाई से
जिसे थामे रहना उनका फ़र्ज़ है

वो निश्चित हैं कि
बाकी की पूरी दुनिया
सूरज के लैंप पोस्ट के नीचे
ग्राहक के इंतज़ार में खड़ी वेश्या है
और चाँद उनकी कलाई पर लिपटा
गजरा है

वो जानते हैं कि वह शिव हैं
जिन्हें पीना पड़ता है
सामाजिकता का ज़हर
जिसकी कडवाहट को गले के नीचे
उतारने के लिए ही तो
वे पीते हैं शराब

कभी कभी व्यथा जब बहुत बढ़ जाती
तो पीटते है पत्नी को
पत्नी एक संज्ञा है
ज़माने के सारे रस्मों रवायात की
जिसे मजबूरन तोडना पड़ता है उन्हें
वक़्त बे वक़्त

उन्हें यक़ीन है
उनके ही कन्धों पर टिके हैं
क्रांतियों के हल
वो निवालों पर लिखते हैं
सवालों पर लिखते हैं
जिस्म में बेवज़ह आये
उबालों पर लिखते हैं
पुरस्कार पाने पर इतरा जाते हैं
न पाने पर गुस्सा जाते हैं
वो दुनिया से सतत नाराज़ रहतें है
उन्हें कोई समझ न सका
यही कहते हैं

वो लिखते हैं
घबराये हुए बौखलाए हर्फों में
इस या उस पर तोहमत लगाते
किसी नेता की आँख में ऊँगली करने,
या न करने की कीमत पर
भुनभुनाते
उदास ऊबे हुए लफ्ज़ बार-बार
उनसे घबरा कर भाग जाते

इसी बीच अचानक
पाठक को लगता है,
की उसे कविता अच्छी नहीं लगती
बिलकुल अच्छी नहीं लगती
और महान कवि!
अब पाठक को धिक्कारते हैं
उसकी समझ को ललकारते हैं
सभ्यता का मुखौटा उतारते हैं
क्षुब्ध हो, विक्षुब्ध हो
सतत आत्म मुग्ध हो
महानता के फूट चुके शंख में
कलेजा भर-भर के फूँक मारते हैं