कवि विनय दुबे की याद / सुरेश सलिल
वो किसी हवेली की बारादरीनुमा रात...
(यादों का काफ़िला भोपाल की तरफ़ बढ़ता है)
...रिमझिम-सी रोशनी में दस्तरख़ान बिछी हुई
मेहमाँनवाज़ एक कवि मेज़बान बना
सजाता हुआ भाँति-भाँति के व्यञ्जन..और
और आबे-हयात --
बैठे हुए गोलाकार कवि-मित्र
कुछ ऐ'न शहर के
कुछ बाहर के
दौर पर दौर...
और...और...
खाने के
पीने के
गपशप के
एव' दूरी के...
महफ़िल बर्खास्त हुई जब
रात ख़ासी भीग चुकी थी...
शहर के लोगों के अपने-अपने साधन थे
और उन्हें अलग-अलग दिशाओं में जाना था
जो बाहर से आए थे
किसी सरकारी सेमिनार के सिलसिले में
समस्या थी उनकी
और गेस्ट-हाउस ख़ासी दूरी पर
...और तब मेहमाँनवाज़ कवि को
गरुड़ की भूमिका में उतरते देर नहीं लगी
ऐसा दोस्त कवि --
सादा - आत्मीय - क़ीमती
(कभी-कभार रहस्यपूर्ण भी!)
मुस्कान का धनी दोस्त कवि --
जो इन्सान भी हो --
समूचे भोपाल में
या हमारे इस माया-जंजाल में
और कौन हो सकता है भला
विनय दुबे के सिवा !....
अलविदा दोस्त !
...अल् मिया !...