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कवि शमशेर के अवसान पर-2 / लीलाधर मंडलोई

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अजब मौसम है सियाह बादलों से घिरा
अँधेरा जैसे डूबती शाम का
दिन देर गये सोने के बाद की उदासी में लिपटा

मेज पर मटमैले कागज में उलझा चाकू
फ्रेम के पीछे से झाँकती पत्नी की तस्वीर बेतअल्लुक
किस कदर शाम की गुमशुदगी के आलम में सब

एक कड़क चाय की जरूरत कि ठेला गया
वीरान सड़क पर मै
कोई जिंदा इंसान दूर-दूर तक नहीं
दियासलाई इतनी मरी कि रगड़ने पर फुस्स आग

दोस्त दूर-दूर तक छिपे जैसे भागते
भोपाल पहाड़ियों के ढाल से लुढ़कता बेमकसद
लोग खिसियाई हँसी में गुम होते
मैं एक जिंदा हँसी की तलाश में डोलता-फिरता

पुरानी गालियाँ नये भोपाल में कत्ल कहीं
फीकी मगर असली मुस्कुराहट भीतर से खींचता जबरन
बमुश्किल मैं मास्टर पान वाले के ठेले पर पहुँचा

नये माहौल से लापरवाह सिर्फ कुछ लोग गनीमत
आपस में माँ-बहन एक करते मस्त जिंदादिल
मैं उनमें दाखिल हुआ एक अदद पान के साथ
जैसे लौट पड़ा बीस साल पुरानी तहजीब की गलियों में
पान का स्वाद जैसे पुराने भोपाल की सुरमई याद
कब्रिस्तान में उतरता मुजरिम सा यह शहर
इस तरह जिंदा हुआ
मानो लौट आए झूमते ताज मियां
फुटपाथ पर जैसे डूबता सूरज धड़का
कहीं बुर्के के भीतर दो आँखें रोशन हुई।