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कवि शमशेर के अवसान पर-3 / लीलाधर मंडलोई

कोलार के पानी को हाकिमों के बंगलों तक लाने अगर
न आया होता मजदूरों का जत्था
देख न पाता कदाचित् उस सात्विक सौंदर्य को मैं

सघन दूधिया फुहारों में दौड-दौड़ आती थी वह
यूकेलिप्टस के छायाविहीन पेड़ तले
तोतारंगी तंग धोती में गेहुंआ उसका रंग
फूट-फूट पड़ता था बारिश से पड़ती लकीरों के बीच

गजगामिनी सा पवित्र रूप लिये गोल मस्त स्तनों को
खोल देती थी एक झटके से बच्चे के सूखे अधरों पर
इस पवित्र देह अनावरण पर झुका मेरा माथ

मुझे याद हो आई बचपन की आदिम भूख
आत्मगौरव में निष्फिकर वह
आते-आते भद्र नागरिकों की नजरों से मुक्त
डूबी थी दुग्धपान कराते अतीव उल्लास में

धूल-धक्कड़ में लिथड़ा यह बच्चा गबरू जवान होगा और
एक दिन अपनी माँ की तरह किसी और शहर में
भारी चट्टानों के बीच बारूद रखेगा

अपनी गर्वीली घरैतिन के सिर पर तसला उठाये
उसे देखती रहेगी माँ
अपनी कोख पर गर्व करती ऐसे ही किसी मौसम में वह
पाँव-पाँव चलने लायक सजीले पोते को तैयार करती होगी

शहर के किसी हिस्से का पानी तब तक और अधिक सूख चुका होगा
जीवन किसी नदी के जल की तरह किसी माँ की आँखों में
नीली हिलोर तब भी भर रहा होगा
तब मैं वहां नहीं होऊँगा क्या?