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कवि सोमदत्त की मृत्यु पर / मानबहादुर सिंह

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‘पुरखों से कोठार में’ भँड़छती
किस दिगन्त में खो गई वह आवाज़ ?

किस ‘रेल के बोगदे’ में सवार
अरबों क़िस्से कहती-कहती
कहाँ गुम हो गई —
अपनी अधूरी दास्तान के दरम्यान ?

उस जगह जो सुनसान बना है
वहाँ उठते हैं कविता के
तमाम-तमाम चेहरे
चेहरों में होती हैं आँखें
आँखों में भविष्य की धुँधली तस्वीरें
वे तस्वीरें तुम्हारे शब्दों में भटकती
गढ़ती हैं अनन्त सपने
जिन्हें सुनने के लिए जन्मती रहेंगी अन्त पीढ़ियाँ ...।

कितने कठोर थे तुम्हारे सपने
कि बरदाश्त नहीं कर पाईं उन्हें
तुम्हारे दिमाग़ की नसें ।
किसी जन्म का अपने गर्भाशय में
ऐसा विस्फोट !

यह न होना जो होता है
पानी पर बुल्ले की तरह
होता रहा है
और होता रहेगा ऐसे।

जब मैं भी नहीं रहूँगा
तुम्हें सोचने के लिए
तुम रह सकते हो
अपने पुरखों की तरह
अपने किसी सोमदत्त के
स्मृतियों के कोठार में —
उलटते-पलटते-खोजते
भविष्य को
खोने के लिए वर्तमान में
अपनी तरह ।

उस उलटने-पलटने में
ज़रूर दिखेगा कोई सपना
ज़ंग खाए हथियार की तरह
साफ़ कर लड़ने के लिए उपस्थित लड़ाई ।

गोरख पाण्डे ने आत्महत्या की थी
सफ़दर हाशमी की हत्या की गई थी —
तुम्हारी सोच से टकराई होंगी
ये मृत्युएँ
अँधेरी राह में चलते हुए
साँप की तरह

और तुम पाँव झटक
नहीं चले गए होगे ऐसे ही
राह और मौसम से
डरे और सहमे हुए ।

तुमने ज़रूर सोची होंगी दिल्ली और भोपाल की
रंगीन सड़कें
उन पर परेड करती ज़हर मुस्कुराती व्यवस्थाएँ ।

सफ़दर हाशमी — गोरख पाण्डे
और तुम्हारी मृत्यु के बीच
जीवन जीने की जो दूरी थी

मृत्यु जीने के पहले
तुमने ज़रूर सोचे होंगे कोई तर्क
और वे तर्क
पानी के बुल्ले नहीं हो सकते —
वे तुम्हारे ऊबड़-खाबड़ शब्दों में
टहलते हैं लाठी लेकर इधर-उधर
जिनकी खटर-खट्ट
मैं सुन रहा हूँ निरन्तर

— गुन रहा हूँ ।
दुख के अँधेरे से आवृत्त
अपनी चेतना में...!