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कवि होना पीड़ा का रियाज़ करना है / चंद्रप्रकाश देवल

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तेरा गाना
जैसे प्रीत के गहरे कुएँ के तल में
सर्द-अँधेरे में गिरती सीर टप-टप
या आँसुओं की राग में झरती हो बूँद
किसी वियोगनी की आँख से

तेरे आरोह का कंपन
जैसे कोहरे के धुँधलके में
कोई फूल की पँखुरी
अपने पर से ओस की बूँद झरने पर
काँप रही हो

पखावजिए का हाथ छू जाने पर
जैसे सुबकता हो किसी पेड़ का तना
या फिर बाँसुरी की फूँक के बहाने
सिसक उठी हो पूरी वनराजि
या किसी वियोग की पकी रसौली को
संयोग की ठेस लगी हो
और पीड़ा बह निकली हो
तुम्हारी मुरकी
जैसे अविनाशी के दरबार में
वीणा के तार पर
किसी तुंबरू की उँगली का सपना चोट करता हो
या संगीत के झुंड से भटकी
कोई अकेली सहमती रागिनी
मौन होने से पूर्व
हिचकी ले रही हो
तुम्हारे गले से

किसी ने सौंपी लगती है यह पीड़ा की सौग़ात
सुरजीत तेरे कंठ को
और तुम भी लगातार
अंडे की तरह उसे सेये चले जा रहे हो

मैं जानता हूँ
कवि को कभी-कभी
अपने पालतू दर्द को
पुचकारने का मन होता है
और यह काम
वह अपने ग़म को दूसरे के दर्द की तर्ज़ में
मिलाकर करता है
चुपचाप

मैं मानता हूँ
कवि होना ही
मात्र, पीड़ा का रियाज़ करना है

अनुवाद : स्वयं कवि