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कवि होने की ज़िद में... / सत्यनारायण सोनी

 
कवि होने की ज़िद में
लिखे जा रहा
शब्द पर शब्द।
लिखे जा रहा,
झखे जा रहा
पठनीयता की तमाम शर्तों को
ठेंगा दिखाता हुआ
जबकि सुना नहीं कभी
अपनी भाषा का
एक भी लोकगीत
पूरे मनोयोग से,
सोचा तक नहीं कि
अनायास प्रस्फुटित हुए जो उद्गार
नहीं लिखे किसी ने
कागज़ पर
कैसे बने हुए हैं
आज भी वे कण्ठहार
कितनी सदियों से
और नहीं लगी है जिन पर
किसी कवि की
कोई छाप!

2012