कवि / विपिन कुमार शर्मा
श्लथ क़दमों से
लौटता है घर
कवि
धीरे-धीरे
भर के निकला था सुबह
कविताओं की टोकरी
बिकी एक भी नहीं
वापिस लौटा है
लेकर,
भूख-प्यास
कुंठा-त्रास
और वही रोज़ की चिख-चिख
नंगे-अधनंगे बच्चे
हर सम्भव जगह
पिता पर झूल जाते हैं
उन्हें कुछ भी नहीं चाहिए
परम सन्तोषी हैं
लेकिन कवि कुछ चाहता है
अपने बच्चों से
उन्हीं की भाँति उमगती -विहँसती कविताएँ
और गदबदी भी
(उनकी तरह कुपोषित नहीं)
पर बच्चों के पास कविताएँ कहाँ !
न ही उन्हें ये मालूम है कि कैसे बनती हैं कविताएँ
फटे बिवाइयों वाले
निरीह से पाँव
जाने कब से चुभ रहे हैं
कवि की आँखों में
दबे कन्धों और झुकी आँखों से
देख रहा है पत्नी की रोनी सूरत
आजिज़ होकर उठता है
बच्चों को धूल-गर्द की भाँति
बदन से झाड़ते हुए
और पत्नी के होठों को
दोनों हाथों की उंगलियों से
निर्ममतापूर्वक खींचकर
कहता है -
"हँसती रहो भाग्यवान !
संपादकों को
अब हास्य कविताएँ चाहिए।"