कश्मीर के बच्चे / भरत प्रसाद
आया अन्धा दौर भयावह,
हृदय काँपता भीतर रह-रह,
इतने वर्षों से उत्तर की
शान्त और सुन्दर घाटी में,
तोपों, गोलों, बन्दूकों का
ख़ूनी शासन गूँज रहा है !
किसने कौमी आग लगाई ?
जिसमें जलते लोग
न जाने कितने सालों से
बेचारे भय के मारे,
बेटों का आतंक देखकर
सहमे-सहमे, दहशत खाए,
अपने ही जीने से डरते !
उठी हुई संगीनें प्रतिदिन
क़ातिल जैसा-
बर्बर तेवर लेकर,
पूरी घाटी में बेख़ौफ़ घूमती
महामौत का चेहरा ओढ़े
क़दम-क़दम पर हिंसक हिकर !
उजड़े से घायल प्रदेश के
गाँव-गाँव में,
नगर-नगर में
हर घर में
अपहरण, लूट, हत्या की साजिश
बार-बार
निर्दोष जनों को खेती
मरते आम लोग बेमौत,
समूचा घर उजाड़ती
एक-एक को चुनकर
पूरी बेरहमी से काट डालती !
बचे हुए भागते हुए लोग
भागते कहाँ-कहाँ
घर-बार छोड़कर
गाँव छोड़कर
अपनी जड़ से उजड़कर !
नहीं ठिकाना जीवन का
आतंकवाद की धरती पर
उनके ऊपर, नंगे सिर पर
काल बनी तलवार लटकती !
कई साल के बाद, इन दिनों
पागल, अन्धा युद्ध रुका है ।
किन्तु अचानक एक गाँव में
घोर रात का आसमान
जो घिरा हुआ है घाटी पर
बेटों की कट्टर गोली से
घनघना उठा
हिल उठीं शान्ति कि दीवारें !
फिर, उसी रात में
मरकर जीते एक सताए घर पर
टूटे मानवता के दुश्मन
पीछे ले बंदूकें दर्ज़न-भर
ये उग्रवाद के सारे बच्चों को
जो पौधे थे छोटे-छोटे
कल बनते फल के पेड़ हरे
फ़ौरन गोली से उड़ा दिया !