भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कसकर जिया / तरुण

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जेठ की जली-सूखी दराड़-खाइर्द्य पपड़ीली धरती
अपनी आँतों में जैसे
वर्षा का पानी, अबाध रूप से है जज्ब करती-
वैसे ही, मैंने भी जीवन को ठेठ तक, अपने में आने दिया,
-मैं कसकर जिया।

दाएँ-बाएँ के फैलाव की खा कर पूरी गोलाई-
लेते ठेठ नीचाई से ठेठ ऊँचाई-
लेते ठेठ ऊँचाई से ठेठ नीचाई-
पूरे वेग से घूम चुका अपने तो लघु जीवन का लौह-पहिया।
-मैं कसकर जिया।

जीवन को मुट्ठीबंध ठेठ हत्थे से पकड़ा,
मौत को गला भींच कर जकड़ा।
प्रभात की अरुणालियों का शरबती शृंगार,
नील-क्षुब्ध समुद्रों का विस्तार-ज्वार,
-सभी तो इन होठों तक आ लिया।
-मैं कसकर जिया।

अपने स्नायु-स्पंज में धरा का
हरित-अरुण रस-सौन्दर्य पूरा भींचा,
आकाशी नील सपनों का
कल्पना-मदिर वैभव प्राणों में खींचा
आकाश से पृथ्वी तक का अनन्त विस्तार उधेड़ा, सिया।
-मैं कसकर जिया।

जीवन का मीठा-खारा, कड़वा-कसैला
तरल-गाढ़ा, अँधेरा-उजेला-
आँखें खोले, मौन रह,
कण्ठ भींच, पैदें तक पिया!

-मैं कसकर जिया।

1987