भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कस्बे सभी अब शहर हो गए हैं / बसंत देशमुख

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज



कस्बे सभी अब शहर हो गए हैं
यहाँ आदमी अब मगर हो गए हैं

हँसी बन्दिनी हो गई है कहीं पर
नयन आँसुओं के नगर हो गए हैं

कहो रौशनी से कि मातम मनाए
अंधेरे यहाँ के सदर हो गए हैं

विषपाइयों कि पीढ़ी से कह दो
सुकरात मर कर अमर हो गए हैं