भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कहती है माँ / तुलसी रमण

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सूखी लकड़ियां भीतर पहुंचाते हुए
कहती है मां
      फागू की धूर१ चमक रही है
       पवन बह रही है कुछ ऐसी
       रात बरसेगी
 `यह आकाशवाणी है
आगामी चौबीस घंटों में
मौसम खुश्क रहेगा’
      पर्जन्य ऋचा का पाठ सुनकर
       सो जाता हूं मैं

अलस्सुबह जगाती है
भीगी माँ
उनींदी आखों कहता है
गीला आँगन
और कोने खड़ा
बूंद-बूंद टपकता कीमू२
       रात भर बरसी है माँ
पंजे चाटती है बिल्ली
पहले झण गुदगुदाता है माँ को
अतिथि के आने का सुख
दूसरे क्षण सताता है माँ को
गाय के बाँझ रहने का दुख
डाल पर कुड़कुड़ाता है कौआ
अपने ही आप से
कहती है माँ
        काट डालो यह कीमू
        खबर लाएगा कौआ
       मसरू३ एक भी नहीं रहा घर में
धूर पर टंगी
गेरूई बदली देख
कुम्हलाते खेत निहारती
साँस छोड़ती माँ
       बस निंबल रहेगा
        पूरे मास आकाश
घिर आते हैं
एकाएक
सावनी बादल
सांवली हो नाचती है
धरती
        माँ की आंखों में
उतरने लगती है भीतर
चरने लगती है बच्छियों की बाश४
और टूटी सलेट
        टपक छत की
खामोश हो जाती है धरती
बादल की बाँहों में
उड़ने लगते हैं पक्षी समूह
दिशाओं को समेटती कहती है माँ
       बर्फ गिरेगी जानु-जानु
माँ के शब्दों की टेर में
गहरी नींद में सो जाता हूं मैं
सुबह जागते ही
पहले क्षण खुश है माँ
आकाश उतर रहा है धरती पर
                 पंखुरी-पंखुरी
दूसरे क्षण उदास है माँ
घास-पत्ती हाट-घराट
सब कुछ छीन लेने को
दबे पांव उतरा है आकाश
दबती जा रही है धरती
इंच-दर-इंच
        माँ के सुख में
दरख्त टूट रहे हैं
शाख-दर-शाख
        माँ के दुख में


- १.फागू नामक स्थान वाली दिशा २. पहाड़ी शहतूत का वृक्ष ३. मृतक पर संबंधियों द्वारा डाला जाने वाला दो गज वस्त्र ४. रम्भाना