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कहते, “माधवी-लता-सी सखि! गदराई जाती सिहर-सिहर / प्रेम नारायण 'पंकिल'

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कहते, “माधवी-लता-सी सखि! गदराई जाती सिहर-सिहर।
सोये शिशु की पुलकावलि-सी अधरों पर जाता हास बिखर।
शुचि दर्पणाभ कोमल कपोल पर अरूणाभा निखरी-निखरी।
कुबलय-दल-सी कोमल अंगुलिया सरस हथेली भरी-भरी।
छिपती हैं मदघूर्णित पलकों में सुमुखि न बड़ी-बड़ी पुतरी।
”पंकिल“-उर-उपवन-कल्पलता जीवन-मरु-सरि की स्निग्धतरी”।
आ राधा-रूप-रसिक! विकला बावरिया बरसाने वाली ।
क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन-वन के वनमाली ॥136॥