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कहते थे प्राण! “अखिल जग में गुंजित दुख-द्वन्द्व और ही है / प्रेम नारायण 'पंकिल'

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कहते थे प्राण! “अखिल जग में गुंजित दुख-द्वन्द्व और ही है।
पर जिसमें फूट पड़े विरही वह होता छन्द और ही है।
अलि-चुम्बन-पूर्व विपुल कलिकाओं का हो जाता वपु-लुण्ठन।
देखता खोलकर नहीं ललक अलि अखिल मुकुल का अवगुण्ठन।
ले भ्रमर जिसे उड़ जाता वह मकरन्द और ही होता है।
सखि! ग्रीव-गता मृदु प्रिया-कमल-कर-फन्द और ही होता है”।
वह क्या है ‘और’, बता, विकला बावरिया बरसाने वाली ।
क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन-वन के वनमाली ॥144॥