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कहनी ग़ज़ल हो पंख फुला कर ग़ज़ल कहो / कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'

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कहनी ग़ज़ल हो पंख फुला कर ग़ज़ल कहो
छोड़ो ज़मीन चांद पे जाकर ग़ज़ल कहो।

पालो न दिल अपने कभी ख़ौफ़ मौत का
तस्वीरे-यार दिल में सजा कर ग़ज़ल कहो।

नम आंख खोल दे न कहीं राज़ इश्क़ का
पानी में थोड़ी आग लगाकर ग़ज़ल कहो।

नाकामियों पे अपनी बहाओ न अश्क़ तुम
उम्मीद के चराग़ जलाकर ग़ज़ल कहो।

यूँ ही गुज़र न जाएं बहारों के रात-दिन
सारे रिवाजो-रस्म निभा कर ग़ज़ल कहो।

चिलमन न कर दे बीच में तौहीन हुस्न की
रुख़ से ज़रा नक़ाब उठाकर ग़ज़ल कहो।

'विश्वास' हुस्ने-शोख़ से फेरो नहीं नज़र
आंखों की पुतलियों को नचा कर ग़ज़ल कहो।