भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कहने को शम्मा-ए-बज़्म-ए-ज़मान / 'अमीक' हनफ़ी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कहने को शम्मा-ए-बज़्म-ए-ज़मान-ओ-मकाँ हूँ मैं
सोचो तो सिर्फ़ कुश्त-ए-दौर-ए-जहाँ हूँ मैं

आता हूँ मैं ज़माने की आँखों में रात दिन
लेकिन ख़ुद अपनी नज़रों से अब तक निहाँ हूँ मैं

जाता नहीं किनारों से आगे किसी का ध्यान
कब से पुकारता हूँ यहाँ हूँ यहाँ हूँ मैं

इक डूबते वजूद की मैं ही पुकार हूँ
और आप ही वजूद का अंधा कुँवाँ हूँ मैं

सिगरेट जिसे सुलगता हुआ कोई छोड़ दे
उस का धुवाँ हूँ और परेशाँ धुवाँ हूँ मैं