राग कल्याण
कहन लागीं अब बढ़ि-बढ़ि बात ।
ढोटा मेरौ तुमहिं बँधायौ तनकहि माखन खात ॥
अब मोहि माखन देतिं मँगाए, मेरैं घर कछु नाहिं !
उरहन कहि-कहि साँझ-सबारैं, तुमहिं बँधायौ याहि ॥
रिसही मैं मोकौं गहि दीन्हौ, अब लागीं पछितान ।
सूरदास अब कहति जसोदा बूझ्यौ सब कौ ज्ञान ॥
भावार्थ :-- (यशोदा जी ने गोपियों को डाँटा-) `अब तुम सब बढ़-बढ़कर बातें कहने लगी हो । तुम्हीं सबों ने तो तनिक-सा मक्खन खाने के कारण मेरे पुत्र को बँधवाया है । अब मुझे (अपने घरों से) मक्खन मँगाकर दे रही हो, जैसे मेरे घर कुछ है ही नहीं । बार बार प्रातः-सायं (हर समय) उलाहना दे-देकर तुम्हीं (सबों) ने तो इसे बँधवाया है । क्रोध में ही इसे पकड़कर तो मुझे दे दिया और अब पश्चाताप करने लगी हो ।' सूरदास जी कहते हैं कि यशोदा जी ने कहा-` अब तुम सबकी समझदारी मैं समझ गयी ।'