कहबै ककरा / चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’
कहबै’ ककरा, के अछि मुँहगर
बहुतो दिन जग रहल बन्हायल,
वर्त्तमान से भेल सोन्हायल,
दोगदागमे सब तकैत अछि
अपना जोगरक अपने गरगर।
स्वर्ग भूमि ई नरक भेल अछि,
नरम जते छल तड़क भेल अछि,
तड़क बनल अछि आजुक युगमे
गिलगर, ढिलगर, हलगर, सोगर।
नेढ़ा पर जा बैसल मच्छड़
लगने लस्सा काटय कच्छड़,
‘को’ क कथा की, कात पड़ल छै’
आँखिक सोझाँ कमरी, कटहर।
मनमे सदिखन होइछ शंका
राम-राज्यमे बनय न लंका,
कपि छथि बहुतो, किन्तु कपीशक
बिनु के डाहत नगर भयकर।
जँऽ जँऽ गीरह फोलि रहल छै’
तँऽ तँऽ मनुआँ डोलि रहल छै’
ढोँढ़क सुनि फुफकार निरन्तर
कापि रहल मतिहुक मति थरथर।
ककरा आब उठै’ छै’ चाटी,
सबहक बदलल छै’ परिपाटी,
झाड़-फूक, वैदक पुड़िया नहि,
सुइया चाही नोंकगर, चोखगर।
शास्त्र-पुरान पुरान पड़ल अछि,
एकबारे पर प्रान गड़ल अछि,
व्यासक गद्दी लग जा’ जयता
सुनता तावत लेक्चर चोटगर।
लटल-बुड़ल बनि गेल’छि हाथी,
बसुली फूकि रहल अछि भाथी,
कड़ची बसुलिक रूप धरै’ अछि
महाविलच्छन सोरगर, पोरगर।
शाक्त लोकनि सन्हिआयल फिरला
वैष्णव सब मन्हुआयल फिरला,
पण्डित लोकनि तकै’ छथि सहजहिं
सुरसुर-मुरमुर, नोनगर, तेलगर।
जग चलैछ कबुला-पातीपर,
राखि हाथ अपने छातीपर,
बाजओ जग युग-चक्रक चक्कर
अँटकत नहि, ई चलत निरन्तर?
रचना काल 1948 ई.