भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कहर से लड़ते मुफ़लिसों के गीत गाता रहा / जयप्रकाश त्रिपाठी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

वक़्त हो तो कोई सुने, जो मैं सुनाता रहा।
कहर से लड़ते मुफ़लिसों के गीत गाता रहा।

मैं कौन होता हूँ, ख़ाली-उदास पन्नों पर,
रोज़ लिखता रहा जो, कोई सब मिटाता रहा।

कोई क़ीमत नहीं अब रह गई जज़्बातों की,
खुली-खुली बही रही, उधार खाता रहा।

शब्द जो पिघले बुरे वक़्त की सियाही से,
आँसुओं से उन्हें धो-धो के जगमगाता रहा।

आँख से टपके जो दो-चार बून्द, क्या होगा,
टूटती बारिशों से दरिया थरथराता रहा।