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कहर से लड़ते मुफ़लिसों के गीत गाता रहा / जयप्रकाश त्रिपाठी
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वक़्त हो तो कोई सुने, जो मैं सुनाता रहा।
कहर से लड़ते मुफ़लिसों के गीत गाता रहा।
मैं कौन होता हूँ, ख़ाली-उदास पन्नों पर,
रोज़ लिखता रहा जो, कोई सब मिटाता रहा।
कोई क़ीमत नहीं अब रह गई जज़्बातों की,
खुली-खुली बही रही, उधार खाता रहा।
शब्द जो पिघले बुरे वक़्त की सियाही से,
आँसुओं से उन्हें धो-धो के जगमगाता रहा।
आँख से टपके जो दो-चार बून्द, क्या होगा,
टूटती बारिशों से दरिया थरथराता रहा।