कहाँ आ गए / श्रीकान्त जोशी
हम प्रकाश-यात्री, समय-सारथी
कहाँ आ गए
इधर सुपरिचित अंधियारे में?
सूरज सिर पर क्षितिज अनावृत
फिर भी हम सब भटक गए हैं गलियारे में!
अपने ही आकाशदीप थे
जलयानों को चट्टानों से रहे बचाते
अपने ही तट के प्रवाल थे
जिनकी ख़ातिर दसों दिशाओं, दूर समुद्रों के जन आते।
अपना ही है पोत हमारा अपना ही है
अपने ही आकाश-दीप से टकराया है
निर्णय के इतिहास-क्षणों में मल्लाहों को
दिशा-विमर्च्छित
पाखण्डी
अकसर पाया है।
हम भी तो औरों-जैसे ही उलझ गए वारे-न्यारे में।
चिन्तन के ऊँचे शिखरों के
निकट ढूह हैं खड़े कर्म के
सत्ता के प्रत्यक्षवाद से
ध्रुव कँपते हैं प्रजा-धर्म के
एक अनिश्चय हमें दूसरे
अति-निश्चय तक पहुँचाता है
थोड़े नहीं, करोड़ों का संकल्प विकल्पित हो जाता है।
कुछ ही हैं पर शब्द-बीज मैं
अपने बल पर फेंक रहा हूँ
तूती की आवाज़ भले ही नक्कारे में!
कहाँ आ गए इधर सुपरिचित अंधियारे में?