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कहाँ क़ातिल बदलते हैं फ़क़त चेहरे बदलते हैं / हबीब जालिब
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कहाँ क़ातिल बदलते हैं फ़क़त चेहरे बदलते हैं
अजब अपना सफ़र है फ़ासले भी साथ चलते हैं
बहुत कमजर्फ़ था जो महफ़िलों को कर गया वीराँ
न पूछो हाले चाराँ शाम को जब साए ढलते हैं
वो जिसकी रोशनी कच्चे घरों तक भी पहुँचती है
न वो सूरज निकलता है, न अपने दिन बदलते हैं
कहाँ तक दोस्तों की बेदिली का हम करें मातम
चलो इस बार भी हम ही सरे मक़तल<ref>क़त्लगाह की तरफ़</ref> निकलते हैं
हमेशा औज पर देखा मुक़द्दर उन अदीबों का
जो इब्नुलवक़्त<ref>मौक़ापरस्त</ref> होते हैं हवा के साथ चलते हैं
हम अहले दर्द ने ये राज़ आखिर पा लिया ‘जालिब’
कि दीप ऊँचे मकानों में हमारे खूँ से जलते हैं
शब्दार्थ
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