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कहाँ की बात / प्रतिभा सक्सेना
Kavita Kosh से
चलो बात आई गई हो गई !
छोड़ो शिकायत जो बो गई !
कहा-सुना तो ,क्या चिपक गया ,
फिर भी तो मन कुछ हिचक गया !
बोलो न, ,चुप मत रहो, भई !
अच्छा ,चलो बाहर निकल चलें ,
कुछ कदम मिल कर पैदल चलें !
हँसें, ज़रा ! मिलते हैं लोग कई !
ज़िन्दगी है .ये सब तो चलता है ,
थोड़ा सा नमक-मिर्च मिलता है !
हुई नहीं कोई भी बात नई !
छत फाड़ ठहाका उठा था जब
एक दूसरे की तरफ़ देखा तब,
चार आँखें, लिये सवाल कई !
नज़रें थीं शर्ट के सिन्दूर पर !
खुले होंठ, दृष्टि झुकी झेंप कर
बची-खुची बर्फ़ सब पिघल गई !