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कहाँ तक जायेगी झंकार ? / गुलाब खंडेलवाल
Kavita Kosh से
कहाँ तक जायेगी झंकार ?
घर-आँगन, पुर, प्रांत, देश तक या उसके भी पार?
प्रेमी, भक्त, विदग्ध वियोगी
जिसमें भी व्याकुलता होगी
क्या न वही बनकर सहभोगी छेड़ेगा ये तार
जाति, धर्म, भाषा से उठकर
मानव-मन की हर धड़कन पर
गूँजेगें क्या मेरे ये स्वर युग-युग इसी प्रकार?
जग तो सच्चा भी है झूठा
जो आँखें मिलते ही रूठा
किन्तु सुना है, काव्य अनूठा रहता सदाबहार
कहाँ तक जाएगी झंकार
घर-आँगन, पुर, प्रांत, देश तक या उसके भी पार?