कहाँ तुच्छ सब, कहाँ महत् तुम / हनुमानप्रसाद पोद्दार
कहाँ तुच्छ सब, कहाँ महत् तुम, पर यह कैसा अनुपम भाव।
बने प्रेमके भूखे, सबसे प्रेम चाहते, करते चाव॥
धन देते, यश देते, देते जान-शक्ति-बल, देते मान।
किसी तरह सब तुम्हें, ’प्रेम’ दें इसीलिये सब करते दान॥
लेते छीन सभी कुछ, देते घृणा-विपाि, अयश-अपमान।
करते निष्ठुर चोट, चाहते-’तुम्हें प्रेम सब दें’, भगवान॥
सभी ईश्वरोंके ईश्वर तुम बने विलक्षण भिक्षु महान।
उच्च-नीच सबसे ही तुम नित प्रेम चाहते प्रेम-निधान॥
अनुपम, अतुल, अनोखी कैसी अजब तुम्हारी है यह चाह!।
रस-समुद्र, रसके प्यासे बन, रस लेते मन भर उत्साह॥
रस उँड़ेल, रस भर, तुम करते स्वयं उसी रसका मधु-पान।
धन्य तुम्हारी रस-लिप्सा यह, धन्य तुम्हारा रस-विज्ञान॥
यही प्रार्थना, प्रेम-भिखारी! प्रेम-रसार्णव! तुमसे आज।
दान-पानकी मधुमय लीला करते रहो, रसिक रसराज!॥