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कहाँ तुम जा रहे हो? / यतींद्रनाथ राही

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कहाँ तुम जा रहे हो?

कल चले घर से
कहाँ थे
अब
कहाँ तुम जा रहे हो?

खोजते हो तुम जिसे
मिल पाएगा तुमको कभी?
ये मुखौटों के
नक़ाबों के
लिबासों के शहर हैं
क्या लुभावन भव्यता है
जगमगाते राजपथ
तुम न समझोगे इन्हें
ये सब छलावों के डगर हैं
चीखते हैं सब
किसी की
कौन सुनता है यहाँ
और तुम
किसको सुनाने
राग अपना गा रहे हो?
झील आँखों की मिले
या प्यास की सूखी नदी
ये अधर जो बोलते हैं
हृदय की भाषा नहीं
आसमानों में घिरे
जो मेघ हैं काले सघन
बूँद भर भी कल झरेंगे
है तनिक आशा नहीं
ये समन्दर हैं
किसी की प्यास बुझ पाती नहीं
इस झुलसती रेत पर
क्यों व्यर्थ ही
भरमा रहे हो?

टोपियाँ
चोले-तिलक
बदले हुए से आचरण
आवरण हैं महज़
भीतर की धधकती आग के
बह रही जिनकी रगों में
आदतन शैतानियत
हैं विषैले दंश उनको
राग के अनुराग के
तुम,
कोई ईसा
कोई सुक़रात
गांधी तो नहीं
एक पिद्दी सी कलम पर
भाव
इतना खा रहे हो?
21.5.2017