भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कहाँ ये और किसी रास्ते से गुज़रेगा / राम नाथ बेख़बर
Kavita Kosh से
कहाँ ये और किसी रास्ते से गुज़रेगा
मलाल साथ तेरे बैठने से गुज़रेगा
जो तेरी सुरमई आँखों से होके गुज़रा है
नहीं वो शख़्स कभी मयकदे से गुज़रेगा
जिसे तलाश रही हैं निग़ाहें मुद्दत से
अभी वो शख़्स मेरे सामने से गुज़रेगा
जो देखना है उसे,आँखें खोलकर रखिये
किसी भी पल वो इसी दायरे से गुज़रेगा
न हार हौसले को आज 'बेख़बर' ऐसे
बुरा ये वक़्त तेरे हौसले से गुज़रेगा