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कहाँ से आती किरण ज़िंदगी के ज़िन्दाँ में / परवीन शाकिर
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कहाँ से आती किरण ज़िंदगी के ज़िन्दाँ<ref>कारागार</ref> में
वो घर मिला था मुझे जिसमें कोई दर ही न था
बदन में फैल गया सुर्ख़ बेल की मानिंद
वो ज़ख़्म सूखता क्या जिसका चारागर<ref>चिकित्सक </ref> ही न था
हवा के लाए हुए बीज फिर हवा को गये
खिले थे फूल कुछ ऐसे कि जिनमें ज़र<ref>पुष्प रज</ref> ही न था
क़दम तो रेत पे साहिल ने भी न रखने दिया
बदन को जकड़े हुए सिर्फ़ इक भँवर ही न था
शब्दार्थ
<references/>