भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कहाँ से आती किरण ज़िंदगी के ज़िन्दाँ में / परवीन शाकिर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कहाँ से आती किरण ज़िंदगी के ज़िन्दाँ<ref>कारागार</ref> में
वो घर मिला था मुझे जिसमें कोई दर ही न था

बदन में फैल गया सुर्ख़ बेल की मानिंद
वो ज़ख़्म सूखता क्या जिसका चारागर<ref>चिकित्सक </ref> ही न था

हवा के लाए हुए बीज फिर हवा को गये
खिले थे फूल कुछ ऐसे कि जिनमें ज़र<ref>पुष्प रज</ref> ही न था

क़दम तो रेत पे साहिल ने भी न रखने दिया
बदन को जकड़े हुए सिर्फ़ इक भँवर ही न था

शब्दार्थ
<references/>