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कहाँ हुए नहीं ग़दर किसी से पूछो तो / विजय किशोर मानव
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कहां हुए नहीं ग़दर किसी से पूछो तो
वहीं छिपाए जा के सर किसी से पूछो तो
हरेक शक्ल क़ीमतों की तख़्तियां टांगे
ये नुमाइश है या शहर किसी से पूछो तो
जिस्मोईमान बेचती हुई दुकानों में
कौन-सा है तुम्हारा घर किसी से पूछो तो
धूप गिरवीं है शहंशाह के तहख़ाने में
कैसे फैली है ये ख़बर किसी से पूछो तो
अब कहां बाक़ी है, भीतर किसी के, कोई नदी
फिर है हर आंख कैसे तर, किसी से पूछो तो
हां-हुज़ूरी अदब में है यहां ज़माने से
हो झुकाया जो मैंने सर किसी से पूछो तो